Tuesday, 11 May 2010

ये दिल बेकरार हो उठा है, अपने सवालों में कहीं खो बैठा है...

दिल इक बार फिर बेकरार हो उठा है
उनके इंतज़ार की हर घड़ी पर जिरह किये बैठा है,

बस इक बार हो जाये मुलाकात कहीं,
बड़ी शिद्दत से उनकी राहों में नज़रें झुकाए बैठा है,

दीदार के इन्ही पहलु हज़ार में,
कलम से चला तो उनकी पलकों को अपना बनाये बैठा है,

कमबख्त अपनी जिद्द पर बेवक्त अड़ा है,
बेवजह सपनो के सिरहानो पर घर बनाये बैठा है,

कईं बार समझाया उस नादान को, पर वो है की,
अपनी इसी चाहत को अपना पागलपन बनाये बैठा है,

पता नहीं अब बेगार का, इस अंधे गुमार का क्या होगा,
जो उसकी चालाकी में अपना अदना सा इश्क देख बैठा है,

बेक़रार हुआ ये दिल शायद इस बार तो रुकेगा नहीं,
या तो बोसीदा हुआ दम भरता रहेगा कहीं,
या फिर कुर्बानी के दरखत से लटक जायेगा कहीं,

पता नहीं क्यूँ बेक़रार हो बैठा है,
बेउमीद अपने आप से झगड़ बैठा है,
ये दिल पता नहीं क्यूँ बेकरार हो उठा है,
अपने सवालों में कहीं खो बैठा है...

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