मुल्क़ की फिज़ा में ऐसे तैर रहा है भ्रष्टाचार,
जैसे गली-गली बिकता है, कोड़ियों के भाव तीखा आचार.
वक़्त की स्याही भी पड़ गयी है फीकी इसके आगे,
क़ब्र इंसानियत की सिल डाली है, लगाकर इसने काले धागे.
छलनी इससे हम हुए-तुम हुए, समूचा देश हुआ,
बनता गया ज़माना सारा, इसके लिए एक अनंत जुआ.
कौन कमबख्त कहता है होंगे माकूल मौसम यहाँ,
चिताएं जलेंगी, कब्रें खुदेंगी, अभी और जलेगा ये मेरा जहाँ....
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